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मन को परमात्मा मे लगाना, ध्यान द्वारा चित्त को एकाग्र करना,योग का अर्थ क्रमशः: समाधि, जोड़ और संयमन होता है

पालघर।मुबंई  योग शब्द का नाम आने पर जनसामान्य में कुछ शारीरिक क्रिया (आसन) की ही अवधारणा का प्रस्फुटन होता है । जो सही नहीं है इसलिये आयें देखें,योग  क्या है?-
योग शब्द ‘युज्’ धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार युज् धातु तीन गणों में पायी जाती है-
१)- युज् समाधौ दिवादि: आत्मने पदी,
२)- युजिर योगे रुधादि: उभयपदि और
३)- युज् संयमने चुरादि: परस्मैपदि।
इस प्रकार योग का अर्थ क्रमशः समाधि, जोड़ और संयमन होता है।

प्रसिद्ध संस्कृत कोश अमरकोश’ में है-
‘योगः सन्नहनोपायः ध्यान संगति युक्तिषु’-
योग ध्यान की संगति है, ध्यान की युक्ति है। “सन्नहन” उस ध्यान में संघर्षशील होना योग है।
~ वैद्यक में नुस्खे (उपाय) को भी योग कहते हैं।
~ ध्यान द्वारा चित्त को एकाग्र करना योग है।
दो वस्तुओं की संगति अर्थात् मेल को योग कहते हैं।

साधारण जन योग को वह अभ्यास मानते हैं, जिससे कोई अलौकिक सिद्धि मिल जाय, जिससे ऐसे कार्य किये जा सकें जो साधारण मनुष्य की शक्ति से बाहर हों।

ऋग्वेद, पंचम मण्डल, सूक्त इक्यासी की पहली ऋचा में है-
युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य वृहतो विपश्चितः।
वि होत्रा दधे  वयुनाविदेक  इन्मही  देवस्य  सवितु: परिष्टुति:॥
‘विप्रा’ अर्थात् ज्ञानीजन बुद्धि और ज्ञान के स्रोत परमात्मा में ‘मनः युञ्जते’- अपना मन लगाते हैं और ‘धियः युञ्जते’- उसी में बुद्धि लगाते हैं। वही ‘एकः इत देव’ एकमात्र देव है, सबकुछ जानने वाला है, यशों को धारण करता है, उसकी स्तुति महान् है। इस प्रकार वैदिक संहिताओं में योग का आशय मन को परमात्मा में लगाना है।

योग अनादि है। भगवान श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ के चतुर्थ अध्याय के आरम्भ में कहा-
“इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।” (गीता ४-१)
इस अविनाशी योग को मैंने विवस्वान (सूर्य) के प्रति कहा।
“स एवायं मया तेsद्ययोगः प्रोक्तः पुरातनः।” (गीता ४/३) वही पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है। इस प्रकार गीता योगशास्त्र है जिसमें भगवान ने योग के लिए राजयोग, हठयोग, सुरति योग, लय योग जैसे विशेषणों का प्रयोग न कर मात्र योग शब्द को ही समग्रता से लिया है। ‘यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।” गीता उन्हें महायोगेश्वर कहती है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- अर्जुन!
“योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।” (६/४७) योगियों में भी वह योगी मुझे अत्यन्त प्रिय है जो अन्तरात्मा से मुझे भजता है और निरन्तर मुझमें लगा हुआ है। अर्थात् मन,वचन, कर्म से एक परमात्मा में लगने का नाम योग है।

गीता में भगवान कहते हैं-
‘अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये  जनाः  पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।’  (९/२२)-  अनन्य अर्थात् अन्य न! मेरे अतिरिक्त अन्य किसी को न भजता हुआ जो केवल मुझे भजता है ऐसे निरन्तर मुझसे संयुक्त भक्त के योगक्षेम का भार मैं स्वयं वहन करता हूँ। अर्थात् अनन्य भाव से भगवान में लगने का नाम योग है।

गीता के अनुसार,
योग में लगने की विधि क्या है?-
सर्वद्वाराणि  संयम्य  मनो  हृदि   निरुध्य   च।
मूध्न्र्याधायात्मनः  प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥
(८/१२)
सम्पूर्ण इन्द्रियों के दरवाजों को विषयों से समेटकर, मन को हृदय-देश में स्थिर कर, सूरत को मस्तिष्क में स्थिर कर,
‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्  मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।’ (८/१३)- ‘ओम्’  बस इतना ही उस परमतत्त्व परमात्मा का परिचायक है, उसका जप करते हुए और ‘मामनुस्मरन्’- मेरे स्वरूप का ध्यान करते हुए जो देहाध्यास का त्याग कर देता है वह परमगति  प्राप्त कर लेता है। अर्थात् एक परमात्मा के मिलन का नाम योग है। आप मिलेगें कब?

अनन्यचेताः सततं यो मां  स्मरति  नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।
(८/१४)
अनन्य भाव से अर्थात् अन्य किसी देवी-देवता का चिन्तन न करके जो निरन्तर मुझे भजता है, सदा मुझसे संयुक्त उस योगी के लिए मैं सुलभ हूँ। अर्थात् योग का परिणाम है भगवान का दर्शन, न कि सिद्धियों का प्रदर्शन। योग है क्या?-

तं विद्याद् दुःख संयोग वियोगं योग संज्ञीतम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोsनिर्विण्ण चेतसा।।
(६/२३)
जो संसार के संयोग-वियोग से रहित है उसी का नाम योग है। जो आत्यन्तिक सुख है, जिसे परमतत्त्व परमात्मा कहते हैं उसके मिलन का नाम योग है।

वर्तमान काल में अनेक विशेषणों के बीच योग अपना मूल आशय खो चुका है। लोग ऐन्द्रजालिक कौशल को योग कहते हैं। मारण, उच्चाटन, वशीकरण इत्यादि की ओर ही इनके प्रचारकों का विशेष ध्यान रहता है। अस्वाभाविक क्रियाओं तथा यंत्र, मंत्र, ताबीज, कवच इत्यादि द्वारा कर्मफल खण्डन करने का दावा कतिपय योगी करने लगे हैं। सचमुच के योगी ईश्वर-चिन्तन में इतने तन्मय हो जाते थे कि वे शरीर की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते थे। बालों में जटाएँ बन जाती थीं, शरीर पर धूल-मिट्टी जम जाती थी किन्तु आजकल लोग कृत्रिम जटाएँ बना लेते हैं, मिट्टी लगा लेते हैं।
ईश्वर प्रेम, चिन्तन और विरह का पथ है, किन्तु देश-विदेश में #योगा’ के नाम पर मात्र आसनों का प्रचार, कुण्डलिनी जागरण, ध्यान-शिविर, प्राणायाम-प्रशिक्षण प्रचलन देख प्रतीत होता है कि वर्तमान समाज योगदर्शन के प्रणेता महर्षि पतञ्जलि के योगदर्शन के आशय से वंचित होता जा रहा है। ऐसी विषम परिस्थितियों में योगसूत्रों पर आश्रम में आने वाले भक्तों की जिज्ञासाओं तथा साधकों द्वारा योगदर्शन पर बार-बार प्रश्न करने पर साधकों को बैठाकर महर्षि पतञ्जलि के सूत्रों पर जो क्रमबद्ध उपदेश दिया गया, वह प्रस्तुत कृति के रूप में आप सबके समक्ष प्रस्तुत है।
मौर्यवंश के अन्तिम सम्राट बृहद्रथ के निधन के पश्चात उनके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग का शाशनकाल आया, जिसने भगवान बुद्ध के सिद्धान्तों का खण्डन कर जन्म से निर्धारित ब्राह्मणों की पूज्यता पर आधारित चातुवंर्य व्यवस्था की स्थापना की। इस नवीन व्यवस्था की पोषण स्मृतियाँ धर्मशास्त्र के नाम से उसी काल में प्रतिष्ठित हुईं।
महर्षि पतञ्जलि पुष्यमित्र के समकालीन कहे जाते हैं। उस काल में धर्म की नयी-नयी व्यवस्थाओं से आशंकित हो उन्होंने योग के कल्याणपरक ज्ञान को संक्षिप्त सूत्रों में प्रस्तुत किया, जिससे भारत की प्राचीन विद्या का लोप न हो। योग के सिद्धांतों को उन्होंने सूत्र-रूप में किन्तु स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया, जिससे प्रतीत होता है कि शब्दानुशासन व्याकरण पर उनका असाधारण अधिकार था। लोकोक्ति भी है कि भगवान पतञ्जलि ने मनोवाक्काय दोष निवारणार्थ योगसूत्र महाभाष्य और चरक संहिता की संरचना की।

योगेन  चित्तस्य  पदेन  वाचां  मलं  शरीरस्य  च  वैद्यकेन।
योsपाकरोक्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्रांञ्जलरानतोsस्मि॥

महर्षि पतञ्जलि ने योग के नाम पर नया कुछ नहीं लिखा, बल्कि वहीं सूत्रबद्ध किया जो गीता में है। चित्तवृत्तियों का निरोध गीता में है,
यत्रो परमते चित्तं निरूद्ध योग सेवया।।६/२०।।
यमों में परिगणित अपरिग्रह गीता के,
एकाकी यत चित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।६/१०।। से लिया गया है।
स्थिर सुखमासनम् (पातं.२-४६)गीता के ‘स्थिरमासनमात्मन:’ ।।६/११।। की पुनरुक्ति है। अभ्यास और वैराग्य से मन का निरोध (गीता ६-३५) महर्षि पतञ्जलि को भी अभिमत है। ओम् का जप, वीतराग सतगुरु का ध्यान, उनके द्वारा साधना की जागृति, स्वरूप की उपलब्धि- महर्षि का सब कुछ गीता का ही रूपांतर है।

वर्तमान काल में योग की दो प्रमुख प्रणालियाँ प्रचलित हैं- ● एक तो वह जो महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्रों पर आधारित है और
●दूसरी प्रणाली हठयोग के नाम से प्रसिद्ध है।
~ पातंजलयोग ‘चित्तानुशासनम्”- चित्तवृत्तियों को अनुशासित करने पर आधारित है। जबकि
~ हठयोग का सम्बन्ध शरीर-संचालन, स्वास्थ्य एवं रोग-मुक्ति से है। पतञ्जलि ने मन की स्थिरता एवं सुख से बैठने को आसन कहा है, जबकि हठयोग के ग्रन्थ चौरासी से चौरासी लाख आसनों की लम्बी श्रृंखला देते हैं। हठयोग में नेति, धौति, वस्ति, नौली, त्राटक, कपालभाति, महामुद्रा, खेचरी, जालंधर, उड्डीयान, मूलबन्ध, बज्रोली, अमरोली एवं सहजोली जैसी क्रियाएँ प्रचलन में हैं, जिनके विषय में योग-दर्शन मौन है।
हठयोग प्रणाली में षट्चक्रों का भेदन करते हुए कुण्डलिनी को ब्रह्मरंध्र तक ले जाना होता है। उसमें योग के आठ अंगों के स्थान पर छः अंगों की ही चर्चा है, यम-नियमों को छोड़ दिया गया है। हठयोग का प्राणायाम श्वासों के पूरक, कुम्भक और रेचक पर दृष्टि रखना है जिसके कई रूप उज्जायी, भस्त्रिका, सूर्यभेदी, भ्रामरी, शीतली इत्यादि हैं। सिद्धियों को महर्षि पतञ्जलि ध्येय की प्राप्ति में व्यवधान मानते हैं, जबकि हठयोगी इसे योग की महत्वपूर्ण उपलब्धि मानकर इसका प्रदर्शन करते रहते हैं।

कहना न होगा कि योग के नाम पर अनेक भ्रांत धारणाओं का सृजन इन दोनों प्रणालियों को मिला देने से हुआ है अथवा यह कहना अधिक समीचीन होगा कि शारीरिक क्रियाओं को योग की संज्ञा देने से विकृतियों को प्रोत्साहन मिला है। कल्याणकारक योगविधि वही है जिसकी परम्परा वेदों से लेकर गीता तक अछूण्य है, शुंगकाल में जिसे महर्षि पतञ्जलि ने पुनः सूत्रबद्ध किया है।
महर्षि पतञ्जलि ने योगदर्शन विश्व के मानव मात्र को उद्देश्य बनाकर प्रस्तुत किया है, जिसमें मानव मात्र के अंतःकरण में निहित दुःख के कारणों का उन्मूलन कर शाश्वत कैवल्य की प्राप्ति का मार्गदर्शन है।

योगसूत्र कठिन है और योगाभ्यास की कतिपय अवस्थाओं की पूर्ण व्याख्या उपस्थित नहीं करते। वे संक्षिप्त टिप्पणी के रूप में हैं, मानो निर्देश करते हैं कि किसी तत्त्वदर्शी सदगुरु की शरण मे जायँ। इसी सन्देह के साथ महर्षि के सूत्रों की व्याख्या आप सबके समक्ष प्रस्तुत है।

[ ‘यथार्थ गीता’ के प्रणेता पुज्य गुरुदेव कृत,
महर्षि पतंजलीकृत ‘योगदर्शन’ प्रत्यक्षानुभूत व्याख्या’
के प्राक्कथन से लोक-हित में साभार प्रस्तुत, जो http://yatharthgeeta.com पर pdf रूप में नि:शुल्क उपलब्ध है।

जेडीसिंह

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