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सभी महापुरुष एक, एक ही बिन्दु का स्पर्श कर एक ही स्वरूप को पाते है, सबका सच्चा हितैषी संत
☘🌹 ओम श्री परमात्मने नमः☘🌹
।।संत सब एक।। मनीष सोलंकी
गीता ,अध्याय४/१ में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया इस अविनाशी योग को कल्प के आदि में मैंने सूर्य के प्रति कहा था ।किंतु श्री कृष्ण के पूर्व कालीन इतिहास अथवा अन्य किसी भी शास्त्र में श्रीकृष्ण नाम का उल्लेख नहीं मिलता।
वास्तव में श्री कृष्ण एक पूर्ण योगेश्वर हैं। वे एक अव्यक्त और अविनाशी भाव की स्थिति के हैं ।जब कभी परमात्मा से मिलने वाली क्रिया अर्थात् योग का सूत्रपात किया गया तो इसी स्थिति वाले किसी महापुरुष ने किया ,चाहे वह राम हों या ऋषि जरथुरत्र ही क्यों ना रहे हों। परवर्तीकाल में यही उपदेश ईसा,मुहम्मद, गुरुनानक इत्यादि जिस किसी के द्वारा निकला कहा श्रीकृष्ण ने ही।
अतः सभी महापुरुष एक ही हैं। सब -के -सब एक ही बिन्दु का स्पर्श कर एक ही स्वरुप को पाते हैं। यह पद एक इकाई है। अनेक पुरुष इस पथ पर चलेंगे; लेकिन जब पाएंगे ,एक ही पद को पाएंगे। ऐसी अवस्था को प्राप्त संत का शरीर एक मकान मात्र रह जाता है ।वे शुद्ध आत्म स्वरुप हैं। ऐसी स्थितिवालों ने कभी कुछ कहा, तो एक योगेश्वर ने ही कहा।
सन्त कहीं -ना- कहीं तो जन्म लेता ही है। पूरब अथवा पश्चिम में श्याम अथवा श्वेत परिवार में, पूर्व प्रचलित किन्हीं धर्मावलम्बियों के बीच अथवा अबोध कबीलों में, सामान्य जीवन जीने वाले गरीब अथवा अमीरों में जन्म लेकर भी संत उनकी परंपरा वाला नहीं होता। वह तो अपने लक्ष्य परमात्मा को पकड़कर स्वरूप की ओर अग्रसर हो जाता है, वही हो जाता है। उसके उपदेशों में जाति -पाँति ,वर्ग भेद और अमीर -गरीब की दीवारें नहीं रहती है ।यहां तक की उसकी दृष्टि में नर- मादा का भेद भी नहीं रह जाता (देखे, गीता,१५/१६ द्वाविमौ पुरुषौ लोके)।
महापुरुषों के पश्चात् उनके अनुयायी अपना सम्प्रदाय बनाकर संकुचित हो जाते हैं। किसी महापुरुष के पीछे चलने वाले यहूदी हो जाते हैं, तो किसी के अनुयायी ईसाई, मुसलमान ,सनातनी इत्यादि हो जाते हैं; किंतु इन दीवारों से संत का संबंध कदापि नहीं होता ।संत न तो कोई साम्प्रदायिक है और न ही कोई जाति। संत संत है उन्हें किसी सामाजिक संगठन में न समेटें।
अतः संसार भर के संतों की, चाहे किसी कबीले में उनका जन्म हुआ है ,चाहे किसी मजहब संप्रदाय वाले उनका पूजन अधिक करते हो, किसी साम्प्रदायिक प्रभाव में आकर ऐसे संतो की आलोचना नहीं करनी चाहिये; क्योंकि वे निरपेक्ष हैं। संसार के किसी भी स्थान में उत्पन्न संत निंदा के योग्य नहीं होता ।यदि कोई ऐसा करता है तो वह अपने अंदर स्थित अंतर्यामी परमात्मा को दुर्बल करता है, अपने परमात्मा से दूरी पैदा कर लेता है, स्वयं अपनी क्षति करता है। संसार में जन्म लेने वालों में यदि आपका कोई सच्चा हितैषी है तो संत ही। अतः उनके प्रति सहृदय रहना संसार भर के लोगों का मूल कर्तव्य है ।इससे वंचित होना अपने को धोखा देना है।