- दिल्ली। इस्लाम (अरबी: الإسلام) एक एकेश्वरवादी धर्म है, जो इसके अनुयायियों के अनुसार, अल्लाह के अंतिम रसूल और नबी, मुहम्मद साहब द्वारा मनुष्यों तक पहुंचाई गई अंतिम ईश्वरीय पुस्तक क़ुरआन की शिक्षा पर आधारित है। कुरान अरबी भाषा में रची गई और इसी भाषा में विश्व की कुल जनसंख्या के 25% हिस्से, यानी लगभग 1.6 से 1.8 अरब लोगों, द्वारा पढ़ी जाती है; इनमें से (स्रोतों के अनुसार) लगभग 20 से 30 करोड़ लोगों की यह मातृभाषा है। हजरत मुहम्मद साहब के मुँह से कथित होकर लिखी जाने वाली पुस्तक और पुस्तक का पालन करने के निर्देश प्रदान करने वाली शरीयत ही दो ऐसे संसाधन हैं जो इस्लाम की जानकारी स्रोत को सही करार दिये जाते हैं।
इस्लामी आस्था
इस्लामी धर्म के प्रमुख मत यह हैं:
ईश्वर की एकता
मुसलमान एक ही ईश्वर को मानते हैं, जिसे वे अल्लाह(फ़ारसी: ख़ुदा) कहते हैं। एकेश्वरवाद को अरबी मेंतौहीद कहते हैं, जो शब्द वाहिद से आता है जिसका अर्थ है एक। इस्लाम में ईश्वर को मानव की समझ से परे माना जाता है। मुसलमानों से इश्वर की कल्पना करने के बजाय उसकी प्रार्थना और जय-जयकार करने को कहा गया है। मुसलमानों के अनुसार ईश्वर अद्वितीय है – उसके जैसा और कोई नहीं। इस्लाम में ईश्वर की एक विलक्षण अवधारणा पर बल दिया गया है और यह भी माना जाता कि उसका सम्पूर्ण विवरण करना मनुष्य से परे है। कहो:
नबी (दूत) और रसूल
इस्लाम के अनुसार ईश्वर ने धरती पर मनुष्य के मार्गदर्शन के लिये समय समय पर किसी व्यक्ति को अपना दूत बनाया। लगभग सन्सार मे 124,000 नबी (दूत) एक खुदा को पूजने का सन्देश देने के लिये भेजे गये थे। यह दूत भी इन्सनों में से होते थे और ईश्वर की ओर लोगों को बुलाते थे। ईश्वर इन दूतों से विभिन्न रूपों से समपर्क रखता था। इन को इस्लाम में नबी कहते हैं। जिन नबियों को ईश्वर ने स्वयं, शास्त्र या धर्म पुस्तकें प्रदान कीं उन्हें रसूल कहते हैं। मुहम्मद साहब भी इसी कड़ी का भाग थे। उनको जो धार्मिक पुस्तक प्रदान की गयी उसका नाम कुरान है। कुरान में अल्लाह के 25 अन्य नबियों का वर्णन है। स्वयं कुरान के अनुसार ईश्वर ने इन नबियों के अलावा धरती पर और भी कई नबी भेजे हैं जिनका वर्णन कुरान में नहीं है।
सभी मुसलमान ईश्वर द्वारा भेजे गये सभी नबियों की वैधता स्वीकार करते हैं और मुसलमान, मुहम्मद को ईशवर का अन्तिम नबी मानते हैं। अहमदिय्या समुदाय मुहम्मद साहब को अन्तिम नबी नहीं मानता तथापि स्वयं को इस्लाम का अनुयायी कहता है और संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकारा भी जाता है हालांकि कई इस्लामी राष्ट्रों में उसे मुस्लिम मानना प्रतिबंधित है। भारत के उच्चतम न्यायालय के अनुसार उनको भारत में मुसलमान माना जाता है।[1][2][3][4]
धार्मिक पुस्तकें
मुसलमानों के लिये अल्लह् द्वारा रसूलों को प्रदान की गयी सभी धार्मिक पुस्तकें वैध हैं। मुसलमनों के अनुसार कुरान ईश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान की गयी अन्तिम धार्मिक पुस्तक है। कुरान में चार और पुस्तकों की चर्चा है:
- सहूफ़ ए इब्राहीमी जो कि हजरत इब्राहीम को प्रदान की गयीं। यह अब लुप्त हो चुकी है।
- तौरात (तोराह) जो कि हजरत मूसा को प्रदान की गयी।
- ज़बूर जो कि दाउद को प्रदान की गयी।
- इंजील (बाइबल) जो कि हजरत ईसा को प्रदान की गयी।
मुसलमान यह मानते हैं कि ईसाइयों और यहूदियों ने अपनी पुस्तकों के सन्दशों में बदलाव कर दिये हैं। वे इन चारों के अलावा अन्य धार्मिक पुसतकों का ईश्वरीय होने की सम्भावना से मना नहीं करते हैं।
देवदूत
मुसलमान देवदूतों (अरबी में मलाइका/ उर्दु मे “फ़रिश्ते”) के अस्तित्व को मानते हैं। उनके अनुसार देवदूत स्वयं कोई विवेक नहीं रखते और ईश्वर की आज्ञा का यथारूप पालन ही करते हैं। वह केवल रोशनी से बनीं हूई अमूर्त और निर्दोष आकृतियाँ हैं जो कि न पुरुष हैं न स्त्री, बल्कि मनुष्य से हर दृष्टि से अलग हैं। हालांकि देवदूत अगणनीय हैं, पर कुछ देवदूत कुरान में प्रभाव रखते हैं:
- जिब्राईल जो नबीयों और रसूलों को ईश्वर का सन्देश ला कर देता है।
- इज़्राईल जो ईश्वर के समादेश से मृत्यु का दूत जो मनुषय की आत्मा ले जाता है।
- मीकाईल जो ईश्वर के समादेश पर मौसम बदलनेवाला देवदूत।
- इस्राफ़ील जो ईश्वर के समादेश पर प्रलय के दिन के आरम्भ पर एक आवाज़ देगा।
- किरामन कातिबीन (हिंदी में “प्रतिष्ठित लेखक”) जो मनुष्य के कर्मों को लिखते हैं। इस्लामिक मान्यता अनुसार प्रत्येक मनुष्य के साथ दो देवदूत लगे होते हैं जो उसके कर्मों को लिखते रहते हैं(कुरआन -82-9 व 10)
- मुनकिर नकीर या नकीरैन – मनुष्य के मरणोपरान्त उसकी कब्र में आ कर उससे तीन प्रशन पूछने वाले।
प्रलय (यौम अल-क़ियामा)
मध्य एशिया के अन्य धर्मों (ईसाई और यहूदी) के समान इस्लाम में भी ब्रह्मांड का अंत प्रलय के दिन द्वारा माना जाता है। इसके अनुसार ईश्वर एक दिन संसार को समाप्त करेगा। यह दिन कब आयेगा इसकी सही जानकारी केवल ईश्वर को ही है। इस्लाम के अनुसार सभी मृत लोगों को उस दिन पुनर्जीवित किया जाएगा और अल्लाह के आदेशानुसार अपना जीवन व्यतीत करने वालों को स्वर्ग भेजा जाएगा और उसका आदेश न मनाने वालों को नर्क में जलाया जाएगा।
भाग्य (तक़दीर)
मुसलमान भाग्य को मानते हैं। भाग्य का अर्थ इनके लिये यह है कि ईश्वर बीते हुए समय, वर्तमान और भविष्य के बारे में सब जानता है। कोई भी घटना उसकी अनुमति के बिना नहीं हो सकती है। मनुष्य को अपनी इच्छा से जीने की स्वतन्त्रता तो है पर इसकी अनुमति भी ईश्वर ही के द्वारा उसे दी गयी है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य अपने कुकर्मों के लिये स्वयं उत्तरदाई इसलिए है क्योंकि उन्हें करने या न करने का निर्णय ईश्वर मनुष्य को स्वयं ही लेने देता है। उसके कुकर्मों का भी पूर्व ज्ञान ईश्वर को होता है।
मुसलमानों के कर्तव्य और शरीयत
इस्लाम के ५ स्तम्भ
इस्लाम के दो प्रमुख वर्ग हैं, शिया और सुन्नी। दोनों के अपने अपने इस्लामी नियम हैं लेकिन आधारभूत सिद्धान्त मिलते-जुलते हैं। बहुत से सुन्नी, शियाओं को पूर्णत: मुसलमान नहीं मानते। सुन्नी इस्लाम में हर मुसलमान के ५ आवश्यक कर्तव्य होते हैं जिन्हें इस्लाम के ५ स्तम्भ भी कहा जाता है। शिया इस्लाम में थोड़े अलग सिद्धांतों को स्तम्भ कहा जाता है। सुन्नी इस्लाम के ५ स्तंभ हैं-
- साक्षी होना (शहादा )- इस का शाब्दिक अर्थ है गवाही देना। इस्लाम में इसका अर्थ में इस अरबी घोषणा से हैः
इस घोषणा से हर मुसलमान ईश्वर की एकेश्वरवादिता और मुहम्मद के रसूल होने के अपने विश्वास की गवाही देता है। यह इस्लाम का सबसे प्रमुख सिद्धांत है। हर मुसलमान के लिये अनिवार्य है कि वह इसे स्वीकारे
- प्रार्थना (सलात)- इसे फ़ारसी में नमाज़ भी कहते हैं। यह एक प्रकार की प्रार्थना है जो अरबी भाषा में एक विशेष नियम से पढ़ी जाती है। इस्लाम के अनुसार नमाज़ ईश्वर के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता दर्शाती है। यह मक्का की ओर मुँह कर के पढ़ी जाती है। हर मुसलमान के लिये दिन में ५ बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। विवशता और बीमारी की हालत में (शरीयत में आसान नियम बताये गए हैं ) इसे नहीं टाला जा सकता है।
- व्रत (रमज़ान) (सौम )- इस के अनुसार इस्लामी कैलेंडर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के लिये सूर्योदय (फरज) से सूर्यास्त (मग़रिब) तक व्रत रखना(भूखा रहना)अनिवार्य है। इस व्रत कोरोज़ा भी कहते हैं। रोज़े में हर प्रकार का खाना-पीना वर्जित(मना) है। अन्य व्यर्थ कर्मों से भी अपनेआप को दूर रखा जाता है। यौन गतिविधियाँ भी वर्जित हैं। विवशता में रोज़ा रखना आवश्यक नहीं होता। रोज़ा रखने के कई उद्देश्य हैं जिन में से दो प्रमुख उद्देश्य यह हैं कि दुनिया के बाकी आकर्षणों से ध्यान हटा कर ईश्वर से निकटता अनुभव की जाए और दूसरा यह कि निर्धनों, भिखारियों और भूखों की समस्याओं और परेशानियों का ज्ञान हो।
- दान (ज़कात )- यह एक वार्षिक दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को निर्धन मुसलमानों में बांटना अनिवार्य है। अधिकतर मुसलमान अपनी वार्षिक आय का 2.5% दान में देते हैं। यह एक धार्मिक कर्तव्य इस लिये है क्योंकिइस्लाम के अनुसार मनुष्य की पून्जी वास्तव में ईश्वर की देन है। और दान देने से जान और माल कि सुरक्षा होती हे।
- तीर्थ यात्रा (हज)- हज उस धार्मिक तीर्थ यात्रा का नाम है जो इस्लामी कैलेण्डर के 12वें महीने मेंमक्का में जाकर की जाती है। हर समर्पित मुसलमान (जो हज का खर्च उठा सकता हो और विवश न हो) के लिये जीवन में एक बार इसे करना अनिवार्य है।
शरीयत और इस्लामी न्यायशास्त्र
मुसलमानों के लिये इस्लाम जीवन के हर पहलू पर अपना प्रभाव रखता है। इस्लामी सिद्धान्त मुसलमानों के घरेलू जीवन, उनके राजनैतिक या आर्थिक जीवन,मुसलमान राज्यों की विदेश निति इत्यादि पर प्रभाव डालते हैं। शरीयत उस समुच्चय नीति को कहते हैं जो इस्लामी कानूनी परम्पराओं और इस्लामी व्यक्तिगत और नैतिक आचरणों पर आधारित होती है। शरीयत की नीति को नींव बना कर न्यायशास्त्र के अध्य्यन कोफिक़ह कहते हैं। फिक़ह के मामले में इस्लामी विद्वानों की अलग अलग व्याख्याओं के कारण इस्लाम में न्यायशास्त्र कई भागों में बट गया और कई अलग अलग न्यायशास्त्र से सम्बन्धित विचारधारओं का जन्म हुआ।[5] इन्हें पन्थ कहते हैं। सुन्नी इस्लाम में प्रमुख पन्थ हैं-
- हनफ़ी पन्थ– इसके अनुयायी दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में हैं।
- मालिकी पन्थ-इसके अनुयायी पश्चिम अफ्रीका और अरब के कुछ भागों में हैं।
- शाफ्यी पन्थ-इसके अनुयायी अफ़्रीका के पूर्वी अफ्रीका, अरब के कुछ भागों और दक्षिण पूर्व एशिया में हैं।
- हंबली पन्थ– इसके अनुयायी सऊदी अरब में हैं।
अधिकतर मुसलमानों का मानना है कि चारों पन्थ आधारभूत रूप से सही हैं और इनमें जो मतभेद हैं वह न्यायशास्त्र की बारीक व्याख्याओं को लेकर है।
इतिहास
मुहम्मद पैगंबर
मुहम्मद पैगंबर (५७०-६३२) को मक्का की पहाड़ियों में परम ज्ञान ६१० के आसपास प्राप्त हुआ। जब उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया तब मक्का के समृद्ध लोगों ने इसे अपनी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था पर खतरा समझा और उनका विरोध किया। अंत में ६२२ में उन्हें अपने अनुयायियों के साथ मक्का सेमदीना के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरा कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है। मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान सी थी और हजरत मुहम्मद साहब के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। ६३० में हजरत मुहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों के साथ एक संधि का उल्लंघन होने के कारण मक्का पर चढ़ाई कर दी। मक्कावासियों ने आत्मसमर्पण करके इस्लाम कबूल कर लिया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया। ६३२ में पैगम्बर मुहम्मद साहब का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक इस्लाम के प्रभाव से अरब के सारे कबीले एक राजनीतिक और सामाजिक सभ्यता का हिस्सा बन गये थे। इस के बाद इस्लाम में खिलाफत का दौर शुरु हुआ।
राशिदून खलीफा और गृहयुद्ध
मुहम्मद के ससुर अबु बक्र सिद्दीक़ मुसलमानों के पहले खलीफा (सरदार) ६३२ में बनाये गये। कई प्रमुख मुसलमानों ने मिल के उनका खलीफा होना स्वीकार किया। सुन्नी मुसलमानों (80-90%) के अनुसार अबु बक्र सिद्दीक की खिलाफ़त के सम्बंध में कोई विवाद नहीं हुआ अपितु सभी ने उन्हे खलिफ़ा स्विकार कर लिया था, सुन्नी मान्य्ताओं के अनुसार हजरत मुहम्मद साहब ने स्वयं अपने स्वर्गवास से पूर्व ही अबु बक्र सिद्दीक को अपने स्थान पर इमामत करने[ सलात (फ़ारसी में “नमाज”) पढाने ] का कार्य भार देकर अबु बक्र सिद्दीक के खलिफ़ा होने का का संकेत दे दिया था सन् ६३२ में मुहम्म्द साहब ने अपने आखिरी हज में ख़ुम्म सरोवर के निकट अपने साथियों को संबोधित किया था। शिया विश्वास के अनुसार इस ख़िताब में उन्होंने अपने दामाद अली को अपना वारिस बनाया था। सुन्नी इस घटना को हजरत अली (अल्०) की प्रशंसा मात्र मानते है और विश्वास रखते हैं कि उन्होंने हज़रत अली को ख़लीफ़ा नियुक्त नहीं किया। इसी बात को लेकर दोनो पक्षों में मतभेद शुरु होता है।
हज के बाद मुहम्मद साहब (स्०) बीमार रहने लगे। उन्होंने सभी बड़े सहाबियों को बुला कर कहा कि मुझे कलम दावात दे दो कि में तुमको एसा नविश्ता लिख दूँ कि तुम भटको नहीं तो उमर ने कहा कि ये हिजयान कह रहे हे और नहीं देने दिया (देखे बुखारी, मुस्लिम)। शिया इतिहास के अनुसार जब पैग़म्बर साहब की मृत्यु का समाचार मिला तो भी ये वापस न आकर सकिफा में सभा करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। जिस समय हज़रत मुहम्मद (स्०) की मृत्यु हुई, अली और उनके कुछ और मित्र मुहम्मद साहब (स्०) को दफ़नाने में लगे थे, अबु बक़र मदीना में जाकर ख़िलाफ़त के लिए विमर्श कर रहे थे। मदीना के कई लोग (मुख्यत: बनी ओमैया, बनी असद इत्यादि कबीले) अबु बकर को खलीफा बनाने पर सहमत हो गये। ध्यान रहे कि मोहम्मद साहेब एवम अली के कबीले वाले यानि बनी हाशिम अली को ही खलीफा बनाना चाहते थे। पर इस्लाम के अब तक के सबसे बड़े साम्राज्य (उस समय तक संपूर्ण अरबी प्रायद्वीप में फैला) के वारिस के लिए मुसलमानों में एकजुटता नहीं रही। कई लोगों के अनुसार अली, जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई थे और दामाद भी (क्योंकि उन्होंने मुहम्मद साहब की संतान फ़ातिमा से शादी की थी) ही मुहम्मद साहब के असली वारिस थे। परन्तु अबु बक़र पहले खलीफा बनाये गये और उनके मरने के बाद उमर को ख़लीफ़ा बनाया गया। इससे अली (अल्०) के समर्थक लोगों में और भी रोष फैला परन्तु अली मुसलमानों की भलाई के लिये चुप रहे।परन्तु शिया मुस्लिम (10-20%)के अनुसार मुहम्मद के चचा जाद भाई, अली, जिन का मुसलमान बहुत आदर करते थे ने अबु बक्र को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया। लेकिन यह विवाद इस्लाम की तबाही को रोक्ने के लिए वास्तव में हज़रत अली की सूझ बुझ के कारण टल गया अबु बक्र के कार्यकाल में पूर्वी रोमन साम्राज्य और ईरानी साम्राज्य से मुसलमान फौजों की लड़ाई हूई। यह युद्ध मुहम्मद के ज़माने से चली आ रही दुश्मनी का हिस्सा थे। अबु बक्र के बाद उमर बिन खत्ताब को ६३४ में खलीफा बनाया गया। उनके कार्यकाल में इस्लामी साम्राज्य बहुत तेज़ी से फैला और समपूर्ण ईरानी साम्राज्य और दो तिहाई पूर्वी रोमन साम्राज्य पर मुसलमानों ने कबजा कर लिया। पूरे साम्राज्य को विभिन्न प्रदेशों में बाट दिया गया और और हर प्रदेश का एक राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया जो की खलीफा का अधीन होता था।
उमर बिन खत्ताब के बाद उसमान बिन अफ्फान ६४४ में खलीफा बने। यह भी मुहम्मद के प्रमुख साथियों में से थे। उसमान बिन अफ्फान पर उनके विरोधियों ने ये आरोप लगाने शुरु किये कि वो पक्षपात से नियुक्तियाँ करते हैं और कि अली (मुहम्मद साहिब के चचा जाद भाई) ही खलीफा होने के सही हकदार हैं। तभी मिस्र में विद्रोह की भावना जागने लगी और वहाँ से १००० लोगों का एक सशस्त्र समूह इस्लामी साम्राज्य की राजधानी मदीना आ गया। उस समय तक सभी खलीफा आम लोगों की तरह ही रहते थे। इस लिये यह समूह ६५६ में उसमान की हत्या करने में सफल हो गया। कुछ प्रमुख मुसलमानों ने अब अली को खलीफा स्वींकार कर लिया लेकिन कुछ प्रमुख मुसलमानों का दल अली के खिलाफ भी हो गया। इन मुसलमानों का मानना था की जबतक उसमान के हत्यारों को सज़ा नहीँ मिलती अली का खलीफा बनना सही नहीं है। यह इस्लाम का पहला गृहयुद्ध था। शुरु में इस दल के एक हिस्से की अगुआईआयशा, जो की मुहम्मद की पत्नी थी, कर रही थीं। अली और आश्या की सेनाओं के बीच में जंग हूई जिसे जंग-ए-जमल कहते हैं। इस जंग में अली की सेना विजय हूई। अब सीरिया के राज्यपाल मुआवियाने विद्रोह का बिगुल बजाया। मुआविया उसमान के रिश्तेदार भी थे मुआविया की सेना और अली की सेना के बीच में जंग हूई पर कोई परिणाम नहीं निकला। अली ने साम्राज्य में फैली अशांति पर काबू पाने के लिये राजधानी मदीना से कूफा में (जो अभी ईराक़ में है) पहले ही बदल दी थी। मुआविया की सेनाऐं अब पूरे इस्लामी साम्राज्य में फैल गयीं और जल्द ही कूफा के प्रदेश के सिवाये सारे साम्राज्य पर मुआविया का कब्जा हो गया। तभी एक कट्टरपंथी ने ६६१ में अली की हत्या कर दी।
शिया और सुन्नी वर्गों की नींव
- इन्हें भी देखें: शिया इस्लाम
- इन्हें भी देखें: सुन्नी इस्लाम
अली के बाद हालांकि मुआविया खलीफा बन गये लेकिन मुसलमानों का एक वर्ग रह गया जिसका मानना था कि मुसलमानों का खलीफा मुहम्मद के परिवार का ही हो सकता है। उनका मानना था कि यह खलीफा (जिसे वह ईमाम भी कहते थे) स्वयँ भगवान के द्वारा आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाता है। इनके अनुसार अली पहले ईमाम थे। यह वर्ग शियावर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।[6] बाकी मुसलमान, जो की यह नहीं मानते हैं कि मुहम्मद का परिवारजन ही खलीफा हो सकता है, सुन्नी कहलाये।[7] सुन्नी पहले चारों खलीफाओं को राशिदून खलीफा कहते हैं जिसका अर्थ है सही मार्ग पे चलने वाले खलीफा।
मुआविया के खलीफा बनने के बाद खिलाफत वंशानुगत हो गयी। इससे उमय्यद ख़िलाफ़त का आरंभ हुआ। शिया इतिहास कारों के अनुसार मुआविया क बेटे यज़ीद ने खिलाफत प्राप्त करते ही इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करना शुरू कर दिया, उसके कृत्य से धार्मिक मुसलमान असहज स्थिति में आ गए, अब यज़ीद को आयश्यकता थी की अपनी गलत नीतिओ को ऐसे व्यक्ति से मान्यता दिला दे जिस पर सभी मुस्लमान भरोसा करते हो, इस काम के लिए यज़ीद ने हज़रत मुहम्मद के नवासे, हज़रत अली अलैहिस सलाम और हज़रत मुहम्मद की इकलौती पुत्री फातिमा के पुत्र हज़रत हुसैन से अपनी खिलाफत पर मंजूरी करनी चाही परन्तु हज़रत हुसैन ने उसके इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करने के कारण अपनी मंजूरी देने से मना कर दिया, हज़रत हुसैन के मना करने पर यज़ीद की फौजों ने हज़रत हुसैन और उनके ७२ साथियो पर पानी बंद कर दिया और बड़ी ही बेदर्दी के साथ उनका क़त्ल करके उनके घर वालो को बंधक बना लिया, कैइ सुन्नी इतिहास कारों ने भी अपनी पुस्तकों में यज़ीद को हुसैन के क़त्ल का ज़िम्मेदार माना है परन्तु ये सभी शिया इतिहास कारों से प्रेरित थे या इनके ज्ञान का असल केन्द्र शियाओं की गडी गयी बनू उमय्या के विरुद्ध झूठी कहानियां है। सुन्नी मत के बड़े विध्वा्नो इमाम अहमद बिन हंब्ल, इमाम ग़ज़ाली वगैरह ने यज़ीद को क़त्ले हुसैन करने का ज़िम्मेदार नहीं माना है। इस जंग में हुसैन को शहादत प्राप्ति हो गयी। शिया लोग १०मुहर्रम के दिन इसी का शोक मनाते हैं।
इस्लाम का स्वर्ण युग (७५०-१२५८)
उम्मयद वंश ७० साल तक सत्ता में रहा और इस दौरान उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, सिन्ध और मध्य एशिया के कई हिस्सों पर उनका कब्ज़ा हो गया। उम्मयद वंश के बाद अब्बासी वंश ७५० में सत्ता में आया। शिया और अजमी मुसलमानों ने (वह मुसलमान जो कि अरब नहीं थे) अब्बासियों को उम्मयद वंश के खिलाफ विद्रोह करने में बहुत सहायता की। उम्मयद वंश की एक शाखा दक्षिण स्पेन और कुछ और क्षेत्रों पर सिमट कर रह गयी। केवल एक इस्लामी सम्राज्य की धारणा अब समाप्त होने लगी।
अब्बासियों के राज में इस्लाम का स्वर्ण युग शुरु हुआ। अब्बासी खलीफा ज्ञान को बहुत महत्त्व देते थे। मुस्लिम दुनिया बहुत तेज़ी से विशव में ज्ञान केन्द्र बनने लगी। कई विद्वानों ने प्राचीन युनान, भारत, चीन और फ़ारसी सभय्ताओं की साहित्य, दर्शनशास्र, विज्ञान, गणित इत्यादी से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन किया और उनका अरबी में अनुवाद किया। विशेषज्ञों का मानना है कि इस के कारण बहुत बड़ा ज्ञानकोश इतिहास के पन्नों में खोने से रह गया।[8]मुस्लिम विद्वानों ने सिर्फ अनुवाद ही नहीं किया। उन्होंने इन सभी विषयों में अपनी छाप भी छोड़ी।
चिकित्सा विज्ञान में शरीर रचना और रोगों से संबंधित कई नई खोजें भारत हूईं जैसे कि खसरा और चेचक के बीच में जो फर्क है उसे समझा गया। इबने सीना(९८०-१०३७) ने चिकित्सा विज्ञान से संबंधित कई पुस्तकें लिखीं जो कि आगे जा कर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का आधार बनीं। इस लिये इबने सीना को आधुनिक चिकित्सा का पिता भी कहा जाता है।[9][10] इसी तरह से अल हैथाम को प्रकाशिकी विज्ञान का पिता और अबु मूसा जबीर को रसायन शास्त्र का पिता भी कहा जाता है।[11][12]अल ख्वारिज़्मी की किताब किताब-अल-जबर-वल-मुक़ाबला से ही बीजगणित को उसका अंग्रेजी नाम मिला। अल ख्वारिज़्मी को बीजगणित की पिता कहा जाता है।[13]
इस्लामी दर्शनशास्त्र में प्राचीन युनानी सभय्ता के दर्शनशास्र को इस्लामी रंग से विकसित किया गया। इबने सीना ने नवप्लेटोवाद, अरस्तुवाद और इस्लामी धर्मशास्त्र को जोड़ कर सिद्धांतों की एक नई प्रणाली की रचना की। इससे दर्शनशास्र में एक नई लहर पैदा हूई जिसे इबनसीनावाद कहते हैं। इसी तरह इबन रशुद ने अरस्तू के सिद्धांतों को इस्लामी सिद्धांतों से जोड़ कर इबनरशुवाद को जन्म दिया। द्वंद्ववाद की मदद से इस्लामी धर्मशास्त्र का अध्ययन करने की कला को विकसित किया गया। इसे कलाम कहते हैं। मुहम्मद साहब के उद्धरण, गतिविधियां इत्यादि के मतलब खोजना और उनसे कानून बनाना स्वयँ एक विषय बन गया। सुन्नी इस्लाम में इससे विद्वानों के बीच मतभेद हुआ और सुन्नी इस्लाम कानूनी मामलों में ४ हिस्सों में बट गया।
राजनैतिक तौर पर अब्बासी सम्राज्य धीरे धीरे कमज़ोर पड़ता गया। अफ्रीका में कई मुस्लिम प्रदेशों ने ८५० तक अपने आप को लगभग स्वतंत्र कर लिया। ईरान में भी यही हाल हो गया। सिर्फ कहने को यह प्रदेश अब्बासियों के अधीन थे। महमूद ग़ज़नी(९७१-१०३०) ने अपने आप को तो सुल्तान भी घोषित कर दिया। सल्जूक तुरकों ने अब्बासियों की सेना शक्ति नष्ट करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने मध्य एशिया और ईरान के कई प्रदेशों पर राज किया। हालांकि यह सभी राज्य आपस में युद्ध भी करते थे पर एक ही इस्लामी संस्कृति होने के कारण आम लोगों में बुनियादी संपर्क अभी भी नहीं टूटा था। इस का कृषिविज्ञान पर बहुत असर पड़ा। कई फसलों को नई जगह ले जाकर बोया गया। यह मुस्लिम कृषि क्रांति कहलाती है।
विभिन्न मुस्लिम सम्राज्यों की रचना और आधुनिक इस्लाम
फातिमिद वंश (९०९-११७१) जो कि शिया था ने उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा कर के अपनी स्वतंत्र खिलाफत की स्थापना की। (हालांकि इस खिलाफत को अधिकतम मुसल्मान आज अवैध मानते हैं।) मिस्र में गुलाम सैनिकों से बने ममलूक वंशने १२५० में सत्ता हासिल कर ली। मंगोलों ने जब १२५८ में अब्बासियों को बग़दाद में हरा दिया तब अब्बासी खलीफा एक नाम निहाद हस्ती की तरह मिस्र के ममलूक सम्राज्य की शरण में चले गये। एशिया में मंगोलों ने कई सम्राज्यों पर कब्ज़ा कर लिया और बोद्ध धर्म छोड़ कर इस्लाम कबूल कर लिया। मुस्लिम सम्राज्यों और इसाईयों के बीच में भी अब टकराव बढ़ने लगा। अय्यूबिद वंश के सलादीन ने ११८७ में येरुशलाईम को, जो पहली सलेबी जंग(१०९६-१०९९) में इसाईयों के पास आ गया था, वापस जीत लिया। १३वीं और १४वीं सदी से उस्मानी साम्राज्य(१२९९-१९२४) का असर बढ़ने लगा। उसने दक्षिणी और पूर्वी यूरोप के कई प्रदेशों को और उत्तरी अफ्रीका को अपना अधीन कर लिया। खिलाफत अब वैध रूप से उस्मानी वंश की होने लगी। ईरान में शियासफवी वंश(१५०१-१७२२) और भारत में दिल्ली सुल्तानों (१२०६-१५२७) और बाद में मुग़ल साम्राज्य(१५२६-१८५७) की हुकूमत हो गयी।
नवीं सदी से ही इस्लाम में अब एक धार्मिक रहस्यवाद की भावना का विकास होने लगा था जिसे सूफी मतकहते हैं। ग़ज़ाली (१०५८-११११) ने सूफी मत के पष में और दर्शनशास्त्र की निरर्थकता के बारे में कुछ ऐसे तर्क दिये थे कि दर्शनशास्त्र का ज़ोर कम होने लगा। सूफी काव्यात्मकता की प्रणाली का अब जन्म हुआ।रूमी (१२०७-१२७३) की मसनवी इस का प्रमुख उदाहरण है। सूफियों के कारण कई मुसलमान धर्म की ओर वापस आकर्षित होने लगे। अन्य धर्मों के कई लोगों ने भी इस्लाम कबूल कर लिया। भारत और इंडोनेशिया में सूफियों का बहुत प्रभाव हुआ।मोइनुद्दीन चिश्ती, बाबा फरीद, निज़ामुदीन जैसे भारतीय सूफी संत इसी कड़ी का हिस्सा थे।
१९२४ में तुर्की के पहले प्रथम विश्वयुद्ध में हार के बाद उस्मानी साम्राज्य समाप्त हो गया और खिलाफत का अंत हो गया। मुसल्मानों के अन्य देशों में प्रवास के कारण युरोप और अमरीका में भी इस्लाम फैल गया है। अरब दैशों में तेल के उत्पादन के कारण उनकी अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से सुधर गयी। १९वीं और २०वीं सदी में इस्लाम में कई पुनर्जागरण आंदोलन हुए। इन में से सलफ़ी और देवबन्दी मुख्य हैं। एक पश्चिम विरोधी भावना का भी विकास हुआ जिससे कुछ मुसलमान कट्टरपंथ की तरफ आकर्षित होने लगा।