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कोई बहुत बड़े संत थे. अपनी जमात को लेकर घूम रहे थे जिसमें बहुत संत थे. एक बगीचा उनको दिखाई दिया. उस बगीचे में जाके वो रुके.
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बहुत सुन्दर बगीचा था. संतो ने सोचा कि यहाँ जमात रुकेगी, बगीचा अच्छा है. यहाँ कीर्तन होगा और ठाकुर जी विराजेंगे.
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ठाकुर जी का डोला वहाँ रखा गया. वहाँ कीर्तन प्रारम्भ हुआ और भगवान की आरती शुरू हुई. आरती में सभी संत वहाँ नृत्य करने लगे.
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जिस बगीचे में आरती हो रही थी वो बगीचा एक वैश्या का था और ये संतों को नहीं पता था वैश्या अपनी कोठी के झरोखे से बड़े ध्यान से आरती देख रही थी.
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आरती को देखती रही. आरती को देखने से ही उसके ह्रदय का कल्मष दूर हो गया. सत्संग में बड़ी शक्ति होती है. इसको कोई समझे या ना समझे.
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यद्यपि उसने आजीवन वैश्या वृत्ति से पाप ही किया था उसके मन में इच्छा जागी कि मैं पास से जाकर इस आरती को देखूं और ये भी देखूं कि ये कैसे प्रेम से भगवान् का नृत्य कर रहे हैं.
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वो वहाँ से चली और आकर के दर्शन किया. दर्शन के बाद सोचने लग गयी कि असली जीवन तो यही है. मैंने तो सारी उम्र पाप कमाया है.
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वैश्या सोचती है कि हमारे पास इतना धन है वो किस काम आयेगा ? क्यों ना इसे प्रभु को भेंट करूं ?
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वैश्या समझ गयी कि ये भोले संत हैं और ये नहीं जानते कि यह वैश्या का बगीचा है. वैश्या उनके पास आयी और साथ में सारे धन को सोने की थाली में रख के लायी.
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उसने वो धन संत जी के आगे रखा और बोली – महाराज ! इस द्रव्य का आप अपने भगवान को भोग लगायें. ये मेरी विनती है,
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ये कहकर वो रोने लग गयी. संत सब का पैसा नहीं स्वीकार करते.
संत पूछने लग गये कि तुम ने कहाँ जन्म लिया ? तू कौन है ?
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वैश्या चुप रही कि मैं क्या कहूं ? केवल रोती रही.
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फिर महात्मा बोले – अरी देवी तू सच-सच कह दे. तू चुप क्यों है ? तेरे मन में कोई शंका है क्या ?
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वैश्या बोली- कि मैं वैश्या हूँ. यह कहके चरणों में गिर पड़ी पर सच बोल गयी.
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संत ने सोचा जब इसके ह्रदय में सच आ गया और भाव आ गया और इसने सरकार को दो आंसू भेंट कर दिये हैं तो इसको मैं कैसे ठुकरा सकता हूँ.
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करुणा से जब संत उसे देखने लग गये तो उसका साहस कुछ और अधिक हुआ और बोली महाराज ये सारा धन आप का है. इसे स्वीकार करो. अगर आप स्वीकार नहीं करोगे तो मैं जान दे दूंगी.
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महात्मा बोले – ठीक है, मन में सोचने लगे कि इस द्रव्य को हम कैसे स्वीकार करेंगे पर प्रभु तो सर्व समर्थ हैं.
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तो वो उससे बोले- कि इस धन से प्रभु के लिए एक सुंदर मुकुट बनवाकर खुद ही अपने हाथों से सरकार को चढ़ा दे.
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वो बोली – कि महाराज ! मेरे धन को तो ब्राहमण भी नहीं छूते तो ये रंगनाथ भगवान कैसे स्वीकार करेंगे ?
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बोले ये प्रभु तो जाति नहीं देखते हैं, ना ही पाति देखते हैं, ना शुद्धि देखते हैं. इनका तो नाम ही पतित पावन है. मैं तुम को वचन दे रहा हूँ.
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तू जब तक मुकुट बनवाकर नहीं आयेगी ठाकुर जी तेरे बगीचे से नहीं हटेंगे.
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वैश्या मुकुट बनवा लायी. संत बड़े निर्भय होते हैं. सभी संतो के बीच में खड़े होकर बोले – कि आ गयी देवी !
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स्वयं मंदिर के भीतर जाकर अपने हाथ से मुकुट पहनाकर आ. सबको पता है वैश्या है पर उसको इजाजत दे दिया.
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वैश्या चली मंदिर में पर अभी कसौटी बाकी थी. जैसे ही देहली पर पैर रखा वैसे ही स्त्री धर्म आ गया. पाप बड़ा विचित्र नाटक दिखाता है. पापों ने कहा – तू नहीं जा सकती.
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तो स्त्री धर्म दिखा दिया वहीं देहली के ऊपर और वो देहली से लौट चली. आचार्य जी तो समझ नहीं पाए कि क्या हुआ ?
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लेकिन भगवान इतने में बोले उठे. श्रीविग्रह मूर्ति बोल उठी.
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भगवान बोले – इसे यहाँ वापिस लाओ, वापिस लाओ. भगवान की करुणा की बात है. ऐसी करुणा सरकार की. बोले मैं इसके हाथ से मुकट पहनुंगा. किसी और के हाथ से नहीं.
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संत ने कहा – कि देवी लौटती क्यों हो ?
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बोली- महाराज लौटने की बात ही है.
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बोले बात-बुत कुछ नहीं है. सरकार की आज्ञा है जल्दी जा.
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घुस गयी अंदर. एक और चमत्कार हुआ कि जब वो मुकुट पहनाने लगी तो भगवान ने अपना सिर झुका दिया.
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कहने का अभिप्राय भगवान केवल अपने भक्त का भाव देखते है उन्हें भक्त का प्रेम ही प्यारा है
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राम ही केवल प्रेम प्यारा,इसलिए आडम्बर छोड़कर केवल सच्चे ह्रदय से भक्ति ही करनी चाहिये.
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((((((( जय जय श्री राधे )))))))
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