|| सत्य की खोज.. ! ||
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••{{ ओशो }}••
सत्य जिसे जानना हो, उसकी पहली शर्त, उसकी पहली भूमिका क्या है? सत्य की यात्रा पर पहला कदम–अपने प्रति सत्य होना है।
तुम जिसे जानने निकले हो, उसे तुम ‘उस जैसा’ होकर ही जान सकोगे।
•••••••••••°|| ओशो ||.°
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और अगर तुम अपने प्रति ही असत्य हो–तुम अपने होने के प्रति ही झूठे हो–तुम्हारे भीतर ही अप्रामाणिकता है–तो सत्य से तुम्हारा संबंध कैसे तय होगा? कैसे निर्धारित होगा?
सत्य को खोजने बहुत लोग जाते हैं, लेकिन प्रामाणिक होने की चेष्टा बहुत कम लोग करते हैं।
जो सत्य को खोजने जाते हैं, वे कभी न पा सकेंगे, लेकिन जो ‘सत्य होने’ की चेष्टा करते हैं, वे सदा पा लेते हैं।
सत्य को खोजने कहीं जाना नहीं है; स्वयं को असत्य होने से बचाना ही उसकी खोज है।
कोई सत्य कहीं छिपा नहीं है–पहाड़ों में, कंदराओं मेंः तुम असत्य हो, इसलिए तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है।
असत्य की आंखें सत्य को देख भी कैसे सकती हैं! तुम सत्य होते ही उसे जान लोगे। रोएं-रोएं को वही स्पर्श कर रहा है। श्वास-श्वास में उसी की धुन है। सब ओर उसी ने तुम्हें घेरा है।
लेकिन तुम असत्य की एक रेखा बनाकर उसके भीतर खड़े हो। तुमने असत्य से अपने को ढांक लिया है। सत्य तो अनढंका है; तुम ढंके हुए हो।
सत्य को खोलने की भी कोई जरूरत नहीं है; तुम बंद हो। इस फासले को, फर्क को–ठीक से समझ लो।
सत्य के साथ कुछ भी नहीं करना है। जो कुछ भी करना है, वह तुम्हें अपने साथ ही करना है।
और सबसे पहली जरूरत है कि तुम अपने संबंध में जो भी सत्य है, उसे स्वीकार करने में समर्थ हो जाओ।
तुम बेईमान हो और ईमानदारी की खोज करोगे! कैसे यह होगा? बेईमान आदमी कैसे ईमानदारी की खोज करेगा? उसकी खोज में भी बेईमानी होगी; वह खोज में भी धोखा देगा।
मैंने सुना हैः एक आदमी ने आठ महीने तक किराया नहीं चुकाया–किसी मकान का, जिसमें वह रह रहा था। आखिर मकान मालिक परेशान हो गया। और एक दिन सुबह आकर उसने कहा, ‘अब बहुत हो गया।
अगर किराया नहीं चुका सकते हो, तो अब तुम मकान छोड़ दो।’ उस आदमी ने कहा, ‘क्या आठ महीने का किराया बिना दिए चला जाऊं! यह नहीं होगा।
चाहे आठ साल चुकाने में क्यों न लग जाएं, लेकिन किराया चुकाकर ही जाऊंगा। तुमने मुझे समझा क्या है?’
ऊपर से तो दिखता है, यह आदमी बड़ी प्रामाणिकता की बात कर रहा है, लेकिन भीतर गहरे में यह आठ साल मुफ्त रहने का इंतजाम कर रहा है।
यह आठ साल बाद कहेगा कि ‘अस्सी साल भले लग जाएं, लेकिन बिना किराया चुकाए क्या मैं जा सकता हूं! तुमने मुझे समझा क्या है?’
यह भी भलीभांति जानता है।
लेकिन यह जो प्रामाणिक होने की चेष्टा कर रहा है, उस चेष्टा में भी इसकी अप्रामाणिकता तो छिपी ही रहेगी।
अप्रामाणिक आदमी कुछ भी करे, उसमें अप्रमाण होगा।
वह सच भी तभी बोलेगा, जब सच का उपयोग झूठ की तरह हो सकता हो। वह सच भी तभी बोलेगा, जब सच से भी वह तुम्हें नुकसान पहुंचा सकता हो।
और तुम्हें याद हैः तुम बहुत बार सच बोलते हो, लेकिन वह तुम तभी बोलते हो, जब सच से भी तुम दूसरों की हानि कर सको।
हिंसक आदमी सत्य का उपयोग भी हथियार की तरह करता है। यह स्वाभाविक है। क्योंकि अगर तुम्हारा व्यक्तित्व हिंसक है, तो तुम अहिंसा भी साधोगे, तो उसमें हिंसा प्रवेश कर जाएगी।
साधेगा कौन? क्रोधी आदमी अगर अक्रोध साधेगा, तो उसकी अक्रोध की साधना में भी क्रोध का ही बल होगा।
पहली बात ठीक से समझ लेनी जरूरी है कि बेईमान को ईमानदार बनने की सीधी कोई सुविधा नहीं है।
पहले तो बेईमान को अपनी बेईमानी स्वीकार करनी होगी। उस स्वीकार में ही आधी बेईमानी तिरोहित हो जाती है, उसका बल खो जाता है।
बेईमान सदा इनकार करता है कि ‘मैं और बेईमान! क्या समझा है तुमने मुझे?’ इस इनकार में ही बेईमानी की ताकत छिपी है। यह इनकार ही बेईमान का गढ़ है।
और वह तुमसे इनकार नहीं करता, वह अपने से भी इनकार करता है कि ‘मैं और बेईमान? कभी-कभी जरूरत पड़ जाती है, बात और है।
ऐसे मैं आदमी ईमानदार हूं।’ बेईमान का भी मन राजी नहीं होता–यह स्वीकार करने को कि ‘मैं बेईमान हूं।’ मानता तो वह भी अपने को ईमानदार है। ऐसे कभी-कभी परिस्थिति या संयोग के कारण बेईमान हो जाता है!
क्रोधी आदमी भी यही नहीं समझता है कि मैं क्रोधी हूं। वह भी समझता है कि कभी-कभी अवसर ऐसे आ जाते हैं कि क्रोध करना पड़ता है।
क्रोधी मैं हूं नहीं। और जो आदमी समझता हैः ‘मैं क्रोधी नहीं हूं’, वह क्रोध को बदलेगा कैसे? बदलेगा कौन?
पहली बात जरूरी है कि तुम जो हो–बुरे-भले–बिना निर्णय के उसे स्वीकार कर लेना।
निर्णय लिया कि अस्वीकार शुरू हो जाता है। तुम निर्णय भी मत करना। तुम सिर्फ खोज-बीन करना कि तथ्य क्या है? मैं बेईमान हूं? चोर हूं? झूठा हूं?
अगर तुमने इतना भी कहा कि ‘झूठा होना बुरा है’, तो तुम पूरा स्वीकार न कर पाओगे।
क्योंकि बुरा कैसे स्वीकार करोगे? अगर तुमने निंदा की कि बेईमानी पाप है, तो तुम फिर बेईमानी को भी स्वीकार न कर पाओगे। क्योंकि पाप को कैसे कोई स्वीकार कर सकता है! तुम निर्णय मत लेना, निंदा मत करना।
पहले सिर्फ तथ्यों की खोज करनाः ‘क्या है?’ और जो हो, उसे स्वीकार कर लेना। बदलने की जल्दी मत करना; क्योंकि बदलना बचने की तरकीब है।
बेईमान जिंदगी भर ईमानदार होने की कोशिश करता रहता है और बेईमान ही मरता है। हिंसक अहिंसक होने की जन्मों से कोशिश कर रहे हैं और अभी तक अहिंसक नहीं हो पाए हैं! वे कभी हो भी नहीं पाएंगे।
क्योंकि वे पहला कदम ही चूक गए। और जो पहला कदम चूक गया, उसकी मंजिल कैसे आएगी? उसकी यात्रा ही शुरू नहीं हुई।
पहला कदम हैः प्रामाणिक स्वीकृति। प्रामाणिक स्वीकृति का पहला हिस्सा हैः
तुम निंदा मत करना; तुम बुरे-भले का विचार मत करना। तुम पहले तो खोज लेना ‘क्या है।’ तुम अपनी तस्वीर को नग्न देख लेना।
तुम जल्दी से यह मत कहना कि ‘यह बुरा है।’ क्योंकि जिसको भी तुम बुरा कह देते हो, उसको तुम अपने से ही छिपाने लगते हो; दूसरों से ही नहीं–अपने से भी छिपाने लगते हो।
और जब तुम अपने से ही छिपाने लगते हो, तो अप्रामाणिक हो जाते हो। वहीं तुम्हारी आथेंटिसिटी खो जाती है।
और जब तुम प्रामाणिक नहीं, तो सत्य से संबंध कैसे होगा? सत्य के द्वार तुम्हारे लिए बंद ही रहेंगे; क्योंकि तुम ही सत्य के लिए बंद हो।
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ओशो.
” सहज समाधि भली ”
- प्रवचन-16
(ब्राह्मणत्व का निखार–प्रामाणिकता की आग में)