लता दीदी गईं। कोई आकस्मिक घटना नहीं। जाना निश्चित था। कल शाम से आशंकाएं बलवती हो गई थी। ऐसा नहीं कहूंगा कि भारत बेसुरा हो गया किंतु मेलोडी अवश्य चली गई। मेलोडी वापस आएगी, किंतु किस शताब्दी में, कहा नहीं जा सकता। आज प्रभात ८ बजकर बारह मिनट पर उनके सुर टूट गए। एक युग का समापन हो गया। लता का युग अपने अंतिम चरण पर भी सक्रिय था और वह सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता से झलकता था। कल हमने वसंत पंचमी का पर्व मनाया और आज सरस्वती अपनी पुत्री को साथ ले गई। लोग कहते हैं उन जैसा कोई जन्म न ले सका। ईश्वर कैसे अपनी रचना के साथ अन्याय कर सकता था। इसलिए वह लता को लाता है तो उसे एक संपूर्ण युग देता है। आज भारतवर्ष अतीत की रेलगाड़ी में सवार है। आज कितने ही सुर प्रेमी पचास से अस्सी के दशक में जाकर छुप जाएंगे। दीदी के जाने के दुःख को वर्तमान में छोड़ उन काले-सफेद दृश्यों में खो जाएंगे, जिनमे लता के नाम का सुरीला धागा बुना हुआ है। आज का वर्तमान मैं देखना ही नहीं चाहता। लता के अवसान का वर्तमान बहुत ही बेसुरा है, असहनीय है। नब्बे के दशक के बाद जन्म लिए लोगों को अब भी नहीं मालूम कि लता को ईश्वरीय क्यो कहा जाता है। आज उनके पास अवसर है। जो गीत उन्होंने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सचिन देव बर्मन, राहुल देव बर्मन, खय्याम, राजेश-रोशन के लिए गाए, वह सुनें।
पंडित नरेंद्र शर्मा ने वर्षों पूर्व एक कविता लिखी थी। इसे उनके भाई हृदयनाथ ने संगीतबद्ध किया। आज यदि आप इसे सुने तो अनुभव होगा कि लता दीदी स्वयं को ही इस गीत में दोहरा रही थीं
मैं उषा के मन की मधुर साध पहली,
मैं संध्या के नैनों में सुधि हो सुनहली,
सुगम कर अगम को मैं दोहरा रही हूँ,
मैं केवल तुम्हारे लिए गा रही हूं,
मैं स्वरताल लय की हूँ लवलीन सरिता,
मैं अनचिन्ह अनजाने कवि की हूँ कविता,
जो तुम हो वो मैं हूँ, ये बतला रही हूँ,
मैं केवल तुम्हारे लिए गा रही हूं,
गहन दुःख के साथ
लेखक : वरिष्ठ पत्रकार विपुल रेगे