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सतगुरु ज्ञान बदरिया बरसे,साधु-संत जन निशि दिन भीगै,निगुरा तरसे,ज्ञान है गंगा तो योग है जमुना

मिर्जापुर। श्री परमहंस आश्रम शक्तेषगढ के पूज्य संत स्वामी अडगडानंद जी महाराज लालगंज जयकर मे बुधवार को भाव बाबा के सान्निध्य मे आयोजित सतसंग भण्डारा के दौरान श्रद्धालु भक्तो के बीच प्रवचन के दौरान सदगुरु ज्ञान बदरिया बरसे का सुन्दर व्याख्यान किया और कहा कि
सद्गुरु के ज्ञान की बदली कहाँ बरसती है? इस पर सन्त कबीर कहते हैं–
गंगा में बरसे जमुना में बरसे,
ताल तलैया तरसे। सदगुरु ज्ञान बदरिया,
साधु सन्त जन निशि दिन भीगैं,
निगुरा बूँद को तरसे। सदगुरु ज्ञान बदरिया,
पाच सखी मिलि तपैं रसोई,
सुरत सुहागन परसै। सदगुरु ज्ञान बदरिया बरसे,
कहत कबीर सुनो भाई साधो!
विरलै शब्द को परखै।
सदगुरु ज्ञान बदरिया बरसे’- जैसे आकाश में बादल बरसता है, इसी प्रकार सद्गुरु के ज्ञान की वृष्टि किसी-किसी भाविक अधिकारी के हृदय में, चिदाकाश में हुआ करती है। एक आकाश बाहर है जिसे हम-आप देखते

हैं। एक आकाश चित्त में भी है- उतना ही बड़ा जितना बाहर है। इसी चिदाकाश में सद्गुरु के ज्ञान का बादल बरसता है। महापुरुष वाणी से कुछ ही दिन बताते हैं, उसके पश्चात् वे मात्र एक चौथाई ही वाणी से बोलते हैं, शेष तीन चौथाई निर्देश साधक के हृदय से ही प्रसारित हो जाते हैं। सद्गुरु साधक के हृदयदेश से बोला करते हैं। उनका उपदेश निरन्तर बरसता रहता है जिसका नाम ‘अनुभव’ है। यही है आत्मा से जागृति, भगवान् का हृदय से रथी होना इत्यादि। इस प्रकार सद्गुरुओं का ज्ञान बादल की तरह बरसता है। वह वृष्टि कहाँ होती है? इस पर कहते हैं–
गंगा में बरसै, जमुना में बरसै, ताल तलैया तरसे।
सद्गुरु के ज्ञान का बादल गंगा और यमुना में बरसता है। गंगा में तो जल है ही, वहाँ वर्षा का क्या उपयोग? वर्षा का लाभ हमें तब है जब वह हमारे खेतों में, क्यारियों में बरसे। उससे हम फसलों का उत्पादन कर लेते! किन्तु सन्त उस वर्षा की बात नहीं कर रहे हैं। सद्गुरुओं की वृष्टि तो गंगा और यमुना में ही होती है। आध्यात्मिक- प्रतीकों में ज्ञान ही गंगा है और योग ही जमुना है।
गंगा जमुना खूब नहाये, गया न मन का मैल।
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्ध- : कालेनात्मन- विन्दति।। (गीता, ४/३८)
अर्जुन! ज्ञान के समान पवित्र करने वाला नि:सन्देह कुछ भी नहीं है। उसे तू स्वयं योग के आरम्भ में नहीं, मध्य में नहीं बल्कि परिपक्व अवस्थाकाल में ‘आत्मनि विन्दति’- अपने हृदयदेश में प्राप्त करेगा। अर्थात् ईश्वर का सन्देश जबसे साधक के हृदय में प्रसारित होने लगता है, आसमान से आवाज जब उतरने लगती है उस दिन से ज्ञान की शुरुआत है। जिसके हृदय में यह जागृति हो गयी, इष्टदेव सद्गुरु आत्मा से रथी हो गये, मार्गदर्शक- हो गये, उस उपदिष्ट ज्ञान के सहारे चलनेवाले पथिक के चिदाकाश में वृष्टि होती है। यह गंगा में बरसना हुआ।
इसी प्रकार योग ही यमुना है। साधक योग के अनुष्ठान में, गीतोक्त नियत कर्म में निरन्तर प्रवृत्त हैं, उन्हें अनुभवों के माध्यम से इष्ट बताते हैं कि कहाँ कमी है। हृदय में सद्गुरु प्रदत्त अनुभवों के सहारे पथिक चलता है, यही यमुना में वृष्टि है। और
‘ताल तलैया तरसे’
सद्गुरु का उपदेश तो मिला किन्तु कल पर टालते रहने वाले तालतलैया हैं। ताल-तलैया जैसे जलाशयों का जल स्थिर रहता है। उनमें बहाव नहीं है, प्रवाह नहीं है किन्तु गंगा-यमुना की धारा गतिशील है। वह जल प्रवाहित होकर समुद्र में मिलकर समुद्र हो जाता है– ‘राम सिन्धु घन सज्जन धीरा।’- परमात्मा अथाह सिन्धु तुल्य है। साधक सिन्धुवत् परमात्मा में समाहित हो जाते हैं, ईश्वरभाव को प्राप्त हो जाते हैं, ईश्वर का प्रतिबिम्ब- प्राप्त कर लेते हैं। जिनमें प्रवाह है, उनमें बरसता है। जो अभ्यासरत नहीं हैं, तरसते रहते हैं। चाहते वे भी हैं किन्तु कर नहीं पाते। तरसना वह है कि चाहते हैं और वस्तु मिलती नहीं। यही है ‘ताल तलैया तरसे’।
इसलिए साधु को चाहिए, हर व्यक्ति को चाहिए कि सतत् अभ्यासरत रहे। ईश्वर-पथ में कभी बीज का नाश नहीं है। यह मान लिया कि आप सम्पूर्ण मार्ग नहीं चल सकेंगे, किन्तु श्वास के रहते दस कदम तो उस पथ पर रख ही सकते हैं। अग्रेतर पंक्तियों में सन्त कबीर कहते हैं–
साधु- सन्त जन निशि दिन भीजैं।
‘साधु- संत वे हैं जो साधना में प्रवृत्त हैं, ‘सन्त’- साधन-पथ के सम्बन्ध में जिनके हृदय में अब सन्देह नहीं है, सन्देह का अन्त है– ऐसे भाविक जन ‘निशि दिन भीजैं’- रात-दिन उस वर्षा में भींगते रहते हैं। सद्गुरु के ज्ञान का बादल रात-दिन बरसता है। यह दिन में चलते-फिरते, उठते-बैठते, ध्यान करते बरसता है, अंग-स्पंदन या दृश्यों के माध्यम से बरसता है। रात में शयन करने पर भी यह आपके स्वप्न में बरसता है। एक भी क्षण ऐसा नहीं है जब परमात्मा सोता है। वह रात-दिन आपके साथ लगा रहता है। साधक को केवल इतना ही करना है कि उनके निर्देशन को समझे और पालन करे। गुरु ज्ञान का बादल उनके लिए निरन्तर अविरल बरसता रहता है।

निगुरा बूँद को तरसे।
‘निगुरा कौन है? प्राय: लोग जानते हैं कि निगुरा उसे कहा जा सकता है जिसके पास गुरु नहीं है; किन्तु ऐसी बात नहीं है। कबीर ऐसे गुरु की चर्चा नहीं करते। वह तो सद्गुरु की बात कर रहे हैं। शाश्वत सत्य एकमात्र परमात्मा है। जो उससे संयुक्त और उस पथ पर चला देने में सक्षम हैं, वह सद्गुरु हैं।
यदि कोई उन सद्गुरु की विद्या से हीन है किन्तु कोई लकीर पीटता है, कोई रूढ़ि पकड़कर बैठा है, पूर्वाग्रहो से ग्रस्त है वह निगुरा है। वह सद्गुरु की विद्या से न केवल वंचित है अपितु विपरीत दिशा में भटक रहा है और जड़ता के साथ उस लकीर को पकड़े हुए है, वह निगुरा है। किसी रूढ़ि से चिपकने वाले ऐसे निगुरे ज्ञान के एक बूँद के लिए तरसते हैं जबकि बेचारे जीवन पर्यन्त भजन ही करते हैं। कबीर साहिब ने इस पर बहुत बल दिया है
कबीर निगुरा ना मिलैं, पापी मिलें हजार।
एक निगुरा के शीश पर, लख पापिन को भार।
सन्त कबीर कहते हैं– मुझे निगुरा न मिले, दिखायी न पड़े। इसके स्थान पर हजार पापी मिलें, मुझे स्वीकार है। कारण? क्योंकि पापी में तो पाप स्वीकार करने का साहस है। जहाँ उसने पाप स्वीकार किया, सद्गुरु उसका मार्गदर्शन- कर देगा और वह चल देगा, पाप धुल जायेंगे। यदि वह सद्गुरु की विद्या, क्रिया-पथ पर उस ज्ञानरूपी बादल के सहारे चले तो सम्पूर्ण पापों का अन्त संभव है किन्तु निगुरा तो सुनता ही नहीं, सुनकर भी चलता नहीं। वह किसी रूढ़ि से चिपककर बैठ गया है। इसी से तो समाज में अनेक पंथ और सम्प्रदायो- का गठन हुआ है जबकि ईश्वर-पथ में कोई सम्प्रदाय नहीं है। परमात्मा सदा एक और अपरिवर्तनशील है। वह एक से दो कभी हुआ ही नहीं। उसमें परिवर्तन आया ही नहीं। उस परमात्मा को पाने की सदैव एक ही विधि है। माया-मोह के संसार में हम थे ही, अब मनसमेत इन्द्रियों- को समेटकर ईश्वर की ओर लगाना है। कैसे लगायें? तो उसके लिए सद्गुरु के ज्ञान की आवश्यकता है। जिन्होंने उस परमात्मा को जाना है, उसमें प्रवेश पाया है, उस परमात्म स्वरूप की जिन्दगी में जो जीता हो, उस अमृत तत्त्व को जो प्राप्त हो– ऐसे महापुरुष का सान्निध्य चाहिए किन्तु जो निगुरे हैं, वे एक-एक बूँद के लिए तरसते रहते हैं। अब साधनात्मक पहलू की चर्चा करते हैं–

पाँच सखी मिलि तपै रसोई, सुरत सुहागन परसे। सदगुरु ज्ञान
‘पाँच सखी’ अर्थात् पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जब संयत हो गयीं तो सखी हैं। ये जहाँ संयत हुर्ई तो ‘तपै रसोई’- भोजन तैयार करने लगती हैं। एक भोजन वह है जिससे आपके शरीर का पोषण होता है। शरीर-निर्वहन के लिए ग्रहण किये जाने वाले भोजन से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। दूसरे प्रकार का भोजन भजन है जो इस आत्मा की तृप्ति करता है, आत्मा को परिपूर्ण और द्रष्टा को स्वरूप में स्थिति दिलाता है। वह भजन ही भोजन है। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियाँ- जहाँ संयत हुई तो ‘तपै रसोई,भली प्रकार भजन में प्रवृत्त हो चलती हैं, भजनरूपी भोजन को तैयार करने, पकाने लगती हैं और–

सुरत सुहागन परसे।

इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियों (सखियों) को संयत करने वाली सुरत है। यह सुहागन है। सुरत ही इस भजन रूपी भोजन को परोसती है। मन की दृष्टि का नाम सुरत है। आप यहाँ बैठे हैं, सत्संग में विभोर हैं, सहसा कोई आपके कान में कह दे कि आपका बच्चा छत से गिर गया, बेहोश है, अस्पताल गया। बस, आपको न तो सत्संग का शब्द सुनाई देगा, कोई वाद्य, संगीत- भजन हो रहा है वह भी नहीं सुनाई देगा किन्तु बच्चे का एक-एक रोम दिखायी देने लगेगा। वस्तु सामने नहीं है फिर भी स्पष्ट दृष्टिगोचर- हो, मन की इस दृष्टि का नाम सुरत है। इसी दृष्टि से भजन किया जाता है। सद्गुरु के स्वरूप और श्वास में सुरत लगाया जाता है, श्वास में नाम जपा जाता है।

पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ संयत हो गयीं तो सुरत अब सुहागन है, प्रियतम सद्गुरु को प्रिय लगने वाली है। निरन्तर उत्तरोत्तर- सुरत लगती जायेगी, सुरत डूबती जायेगी, मन की दृष्टि सिमटकर भजन में प्रवृत्त होती जायेगी, साधक ब्रह्मपीयूष का पान करता जायेगा, इसके पूर्व मे लाले महाराज,शशि बाबा,शोहम महाराज,रामू महाराज,राकेश महाराज,चिन्तनमयानंद महाराज आदि का सत्संग हुआ।अवसर पर आशीष महाराज,रामजी महाराज,शिवानंद महाराज,अनुभवानंद महाराज सहित अनेको साधु-संत और हजारों श्रद्धालु भक्त उपस्थित रहे। जेडी सिंह/ यथार्थ पाण्डेय

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