आत्मज्ञान का महत्व—–
आदि शंकराचार्य कहते हैं
न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विधया।
ब्रह्मात्मैकत्वबोधेन मोक्षः सिद्धयति नान्यथाः।।
अर्थात–मोक्ष न योग से सिद्ध होता है न सांख्य से न कर्म से और न विधा से । वह केवल ब्रह्म और आत्मा की एकता के ज्ञान से ही है और किसी प्रकार नही।
स्वमं की आत्मा के ज्ञान मात्र से मुक्ति नही होती स्वमं की आत्मा एक भिन्न इकाई है जो विश्वात्मा की छोटी सी किरण मात्र इसी प्रकार सभी प्राणियों एवं जीवो मे भिन्न भिन्न आत्माएँ है ये सभी आत्माएँ एक ही विश्वात्मा के विभिन्न रूप हैं यह विश्वात्मा ही ब्रह्म है जो सर्वत्र समान रूप स् व्याप्त ह् ।
विश्वात्मा एवं जीवात्मा में जब एकता की प्रतीति हो जाती है तभी व्यक्ति अपनी निज की आत्मा को उस ब्रह्म में विलीन कर देता है इसी को मुक्ति अथवा मोक्ष कहते है यदि इन दोनो मे पृथकत्व बना रहता है तो वह जन्म मरण के चक्र से मुक्त तो हो जाता है किन्तु इसे मोक्ष नही कहा जा सकता इस स्थिति मे द्वैत बना रहता है।
वह ब्रह्म से अपने को भिन्न ही समझता रहता है मोक्ष की यह अवस्था योग, सांख्य ,कर्म , एवं विधा से प्राप्त नही हो सकती । ब्रह्म और आत्मा की एकता की अनुभूति से ही प्राप्त होती हैं तथा ब्रह्म मे विश्वास नही रखते वे मोक्ष को प्राप्त नही हुए है यह निश्चय है वे अभी मार्ग मे ही भटके हुए है
अ• वशिष्ट